भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक 15 – सुख-दुख में समभाव
श्लोक:
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || 15 ||
अनुवाद:
हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! जो मनुष्य सुख-दुख रूप संसार के संयोगों से व्यथित नहीं होता, वह धैर्यशील है और मुक्ति के योग्य होता है।
व्याख्या:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि जो व्यक्ति जीवन के सुख और दुख को समान दृष्टि से देखता है, वही वास्तव में धैर्यवान होता है और अमृतत्व अर्थात मोक्ष का अधिकारी बनता है।
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जीवन में समता का महत्व
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हम हर दिन कई उतार-चढ़ावों से गुजरते हैं। कभी खुशी तो कभी ग़म—यह जीवन का स्वाभाविक चक्र है। लेकिन जो व्यक्ति इन दोनों में समान रह सकता है, वही सच्ची आत्मिक शांति प्राप्त करता है।
ध्यान व अभ्यास से समता कैसे लाएं?
- माइंडफुलनेस: प्रतिदिन कुछ समय ध्यान करें। इससे मन स्थिर होता है।
- स्वीकार्यता: जो हो रहा है, उसे स्वीकारें। विरोध करने से दुख बढ़ता है।
- कृतज्ञता: हर दिन 3 अच्छी चीज़ें लिखें जिनके लिए आप आभारी हैं।
- विचार से पहले विराम: प्रतिक्रिया देने से पहले 5 सेकंड रुकें।
आधुनिक जीवन में गीता के उपदेश
चाहे ऑफिस की समस्याएं हों, पारिवारिक तनाव, या सामाजिक अपेक्षाएं—हर परिस्थिति में समता का अभ्यास हमें मानसिक संतुलन देता है। यह आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा भी समर्थित है।
निष्कर्ष:
श्रीकृष्ण का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जब तक हम जीवन की परिस्थितियों के अधीन रहेंगे, दुख और भ्रम बने रहेंगे। लेकिन यदि हम समता और धैर्य के साथ जीना सीखें, तो जीवन में स्थायी शांति और मुक्ति संभव है।
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यह पोस्ट मूलतः Observation-Mantra.com पर प्रकाशित हुई है।
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